हम स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाने की बात करते हैं, यहां इलाज में असुविधाओं का विस्तार हो जाता है। शिविरों के माध्यम से स्वास्थ्य जागरूकता के साथ ही लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण भी हो जाता है। परिवार नियोजन और आंखों के भी वर्षों से शिविर लगाए जाते हैं, इनसे लाभ भी होता है, लेकिन जिस तरह से असावधानियां बरती जा रही हैं, उससे शिविरों का उद्देश्य भी पूरा नहीं होता और लागों में इनके प्रति अरुचि भी बढ़ती है। सरकार ने बाकायदा स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की है, लेकिन इसमें भी लापरवाही के साथ ही भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़ रहे हैं।
मध्यप्रदेश में आंखों के कई शिविरों में लोगों की नेत्र ज्योति तक चले जाने की खबरें आ चुकी हैं। ये सरकारी के साथ ही निजी संस्थाएं भी लगाती हैं। लेकिन परिवार नियोजन के शिविर तो सरकारी ही लगाए जाते रहे हैं। इनमें सरकारी अधिकारियों से लेकर चिकित्सकों की लापरवाहियां सामने आती रहीं, तो शासन ने कई जगह इन्हें निजी हाथों में सौंप दिया है। लेकिन हालात फिर भी नहीं बदले। नियमों को ताक में रखकर एक शिविर में तीन कैंप के बराबर यानी 100 तक नसबंदी ऑपरेशन किए जा रहे हैं। इससे ऑपरेशनों के असफल प्रकरण बढऩे के साथ-साथ आपरेशन कराने वालों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर होने की घटनाएं बढऩे लगी हैं।
आज सुबह आई खबर पर गौर करते हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ने राज्य स्तर से निजी संस्था एफआरएचएस इंडिया को सागर के अलावा टीकमगढ़ जिले में परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत नसबंदी शिविर लगाने का काम सौंपा है। संस्था सागर जिले में शाहपुर, बंडा, बीना, खुरई, मालथौन, राहतगढ़, रहली, शाहगढ़ में सरकारी संस्थाओं में नसबंदी शिविरों का आयोजन कर रही है।
इन शिविरों में एक दिन में 70 से 100 तक ऑपरेशन किए जा रहे हैं। जबकि विभाग ने इसी अव्यवस्था को रोकने तथा सर्जरी की गुणवत्ता में सुधार के लिए शिविरों का काम निजी संस्था को सौंपा है। सामान्य तौर पर नियमानुसार एक नसबंदी करने में औसतन 10 मिनट का वक्त लगता है। इस लिहाज से 100 सर्जरी करने के लिए करीब 16 घंटे का वक्त चाहिए। लेकिन शिविरों में एक ही दिन में सभी ऑपरेशन निपटाए जा रहे हैं। इससे दिन के प्रकाश में सर्जरी करने के कोर्ट के निर्देश का पालन भी नहीं किया जा रहा है।
एक साल पहले तक स्वास्थ्य विभाग नसबंदी शिविरों का आयोजन स्वयं सरकारी अस्पतालों में करता था। इस शिविर में एक नसबंदी ऑपरेशन पर हितग्राही और सर्जन के भुगतान सहित अन्य व्यवस्थाओं पर करीब तीन हजार रुपए का खर्च आता था। लेकिन निजी संस्था द्वारा शिविर आयोजन में एक नसबंदी पर 4500 रुपए का खर्च हो रहा है। इसमें हितग्राही और प्रेरक को कुल 2300 रुपए का भुगतान विकासखंड स्तर से हो रहा है। बाकी 2200 रुपए संस्था के खाते में जा रहे हैं।
शिविरों का आयोजन सरकारी अस्पतालों में होने के कारण निजी संस्था बुनियादी व्यवस्थाओं का इंतजाम नहीं कर रही है। कैंप में आने वाली महिलाओं को न तो बैठने के लिए जगह और न ही पीने के लिए साफ पानी मिल रहा है। इसके अलावा छांव के लिए टेंट तक नहीं लगाए जा रहे हैं। मरीज और परिजन अस्पताल के गलियारों में बैठकर सर्जरी के लिए अपनी बारी आने का इंतजार करते हैं। भीड़ बढ़ जाने पर पलंग व गद्दे तक नसीब नहीं होते। दरी पर महिलाओं को लिटाया जा रहा है। दरअसल, आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता ऑपरेशन के लिए महिलाओं को लेकर सुबह 9 बजे से शिविर में पहुंचती हैं। पंजीयन और चेकअप कराने की औपचारिकता में दोपहर के 2 बज जाते हैं। इसके बाद ऑपरेशन शुरू होते हैं।
ये तो केवल कुछ जिलों का मामला है। प्रदेश के तमाम अंचलों में ऐसा ही कुछ हो रहा है। जहां निजी संस्थाएं सरकारी अस्पतालों और अधिकारियों पर ही निर्भर हो जाती हैं। फिर इसे संस्थाओं को देने का लाभ क्या रहा? इसकी समीक्षा तो सरकार को करनी चाहिए। कायदे से तो निजी अस्पताल, मेडिकल कालेज से लेकर निजी संस्थाएं शिविरों के आयोजन जिस तरह सेकर रहें हैं, वो केवल अपने प्रचार और लोगों को अपने अस्पतालों की तरफ खींचने के लिए कर रहे हैं। पहले लालच दिया जाता है, फिर जब वो अस्पताल में इलाज कराने आते हैं तो उन्हें लूटा जाता है। आयुष्मान जैसी योजना से भी निजी अस्पतालों के घर ज्यादा भर रहे हैं।
खैर..बात परिवार नियोजन के तहत नसबंदी के शिविर की हो रही है, तो सरकार को इस तरफ विशेष ध्यान देना होगा। कैम्पों के माध्यम से सरकार का पैसा भी ज्यादा लग रहा है और हर दूसरे तीसरे शिविर में कई केस बिगड़ भी रहे हैं। मामले वहीं के वहीं दबा दिए जाते हैं। इसमें बंटने वाले पैसों को लेकर भी घोटाले के मामले सामने आते रहते हैं। सो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन हो या अन्य योजना, सख्त निगरानी की जरूरत है। उम्मीद है इस ओर ध्यान दिया जाएगा।
– संजय सक्सेना