लुधियाना
बीते 24 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पराली जलाने के मुद्दे पर वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) से जवाब तलब किया कि पराली जलाना फिर से क्यों शुरू हो गया? सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि ‘सीएक्यूएम एक्ट की धारा-14 के तहत जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ क्या कदम उठाया गया है।’ अदालत ने पंजाब और हरियाणा की सरकारों को भी फटकार लगाते हुए कहा कि दोनों राज्यों ने पराली जलाने वाले किसानों के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की है। दरअसल, सीएक्यूएम की धारा के तहत पराली जलाने पर अधिकारियों, कर्मचारियों को सजा का भी प्रावधान है। सवाल है कि क्या अकारण सर्वोच्च न्यायालय को पराली जलाने पर एक जिम्मेदार संस्थान को फटकार लगानी पड़ी!
पंजाब में पराली जलाने के मामले आठ से 93 तक पहुंच गए
क्या सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद पराली प्रबंधन विफल हो चुका है? क्या कृषक जन-मन अब भी पूरी तरह से पराली प्रबंधन पर पुरानी परिपाटी से चल रहा है? जाहिर है, कुछ न कुछ कुप्रबंधित जरूर है। सितंबर माह के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पराली जलाने के कुल 75 मामले उजागर हो चुके हैं। हैरत की बात है कि 15-25 सितंबर के बीच पिछले वर्ष की तुलना में हरियाणा और पंजाब में पराली जलाने की घटनाएं पांच से ग्यारह फीसद तक बढ़ी हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष इसी अवधि में जहां हरियाणा में पराली जलाने के तेरह मामले पाए गए थे, इस बार बढ़ कर 70 हो गए। इसी तरह पंजाब में पराली जलाने के मामले आठ से 93 तक पहुंच गए।
हरियाणा में करनाल, कुरुक्षेत्र और यमुनानगर सर्वाधिक प्रभावित जनपद हैं। वहां कुल 70 मामलों में 31 मामले पाए गए। इसी तरह पंजाब के कुल 93 मामलों में से 58 मामले तरनातरन, गुरुदासपुर और अमृतसर में पाए गए। अनवरत पराली दहन से बिगड़ती आबोहवा का खमियाजा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को भुगतना पड़ता है। सर्दियों के शुरुआती दौर में ही दम घुटने-सा लगता है। अभी बीते 24 सितंबर तक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु गुणवत्ता सूचकांक 203 तक दर्ज किया गया। ऐसे हालात में सुप्रीम की फटकार स्वाभाविक है।
पराली जलाने पर निगरानी के लिए हर वर्ष निगाह रखी जाती है
ऐसा नहीं कि सरकार ने विगत वर्षों में पराली दहन को लेकर कुछ नहीं किया। पर शासन, प्रशासन, सरकारी संस्थाओं और पराली जलाने वाले किसानों के बीच संबंध में जरूर कुछ कमी रह जाती है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के हवाले से केंद्र सरकार ने सूबे की सरकारों को पराली जलाने के दोषी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ न देने का सख्त निर्देश दिया है। पराली जलाने पर निगरानी के लिए हर वर्ष 15 सितंबर तक ‘कंसोर्टियम फार रिसर्च आन एग्रो इकोसिस्टम मानिटरिंग ऐंड माडलिंग फ्राम स्पेस’ (क्रीम्स) द्वारा सेटेलाइट से निगाह रखी जाती है। इससे ‘गूगल लोकेशन’ के साथ पराली जलाने का पता लग जाता है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने पराली जलाने पर दो एकड़ से कम क्षेत्र के लिए ढाई हजार रुपए, दो से पांच एकड़ क्षेत्र के लिए पांच हजार रुपए और पांच एकड़ से अधिक क्षेत्र के लिए पंद्रह हजार रुपए तक अर्थदंड का प्रावधान किया है। दुबारा पराली जलाने पर संबंधित किसान के खिलाफ कारावास और अर्थदंड का भी प्रावधान है। इसी तरह धान काटने के यंत्र कंबाइन हार्वेस्टर में ‘स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम’ (एसएमएस) अनिवार्य कर दिया गया है। बिना एसएमएस वाले कंबाइन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान है। विगत वर्षों में विभिन्न सूबों में हजारों किसानों के विरुद्ध पराली जलाने पर एफआइआर भी दर्ज कराई गई है।
पराली जलाने से मृदा में मौजूद अनेक लाभदायक सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक एक टन पराली जलने से मृदा में मौजूद 5.5 किलो ग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलो ग्राम फास्फोरस, 25 किलो ग्राम पोटैशियम, 1.2 किलो ग्राम सल्फर समेत अन्य उपयोगी पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की रपट के मुताबिक उत्तर भारत के राज्यों में पराली जलाने के कारण तकरीबन दो लाख करोड़ रुपए की आर्थिक हानि होती है। एक अन्य जानकारी के मुताबिक दिल्ली में पराली प्रदूषण की वजह से ‘एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेक्शन’ (एआरआइ) ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले बच्चों और बुजुर्गों में ज्यादा होता है।
प्रदूषण का स्तर उच्च होने के कारण दिल्ली वासियों की जीवन प्रत्याशा में लगभग साढ़े छह साल की कमी आई है। पराली जलने से कार्बन मोनो आक्साइड, कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, पाली सायक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इन प्रदूषकों के प्रसार से ‘स्माग’ का एक मोटा आवरण निर्मित होता है, जिससे ब्रोंकाइटिस, तंत्रिका और हृदय संबंधी, यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
इस समस्या का समाधान केवल सरकारी तंत्र के भरोसे नहीं किया जा सकता है। इसके लिए किसानों को जागरूक बनाना होगा। किसान कम अवधि वाली धान की प्रजातियां लगाएं, जिससे पराली जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, और अगली फसल के लिए पराली विघटन को पर्याप्त समय मिल जाए। पिछले वर्ष हरियाणा सरकार ने धान की सीधी बिजाई के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया था, जिससे 30 सितंबर तक वहां की मंडियों में आठ लाख टन धान बिकने आया था। इससे इतर, धान की कम अवधि वाली प्रजातियों, जैसे पीआर-126, पीबी 1509 आदि बोने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। ‘हैप्पी सीडर’ का प्रयोग किया जाए, जिसमें पराली का बंडल बनकर ऊपर आ जाता है, गेहूं की बुवाई हो जाती है और पराली का बंडल पलवार के रूप में खेत पर बिछ जाता है।
इसके अलावा ‘पैलेटाइजेशन’ को अपनाया जा सकता है। इसमें पुआल को सुखाकर गुटिका के रूप में बदल दिया जाता है, उसे कोयले के साथ मिलाकर थर्मल पावर प्लांट और उद्योगों में ईंधन की तरह प्रयोग करते हैं। इससे एक ओर जहां कोयले की बचत होती है, वहीं दूसरी ओर कार्बन उत्सर्जन में कटौती होती है। ‘गौठान’ छत्तीसगढ़ का एक नवीन प्रयोग है। इसमें पांच एकड़ सरकारी भूमि में दान की गई पराली एकत्र कर गाय के गोबर और प्राकृतिक एंजाइम मिला कर जैविक खाद बनाई जाती है। पराली को ‘कंप्रेस्ड बायो गैस प्लांट’ (सीबीजीपी) में भेज दिया जाए तो ईंधन तैयार हो जाता है। दिल्ली के पूसा संस्थान ने ‘बायो वेस्ट डिकंपोजर’ तैयार किया है। इसके उपयोग से खेत में मौजूद पराली शीघ्र अपघटित होकर खाद के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इस तरह सरकारी तंत्र के अलावा सभी की समग्र संजीदगी से पराली से पार पा सकते हैं।
Source : Agency