Tuesday, 17 September

आवनमंडल (lonosphere) हमारे वायुमंडल का वह ऊपरी हिस्सा है, जिसमें इलेक्ट्रोन और आयन कण भारी संख्या में उपस्थित हैं. आयनमंडल धरती की सतह से 50 किमी. की ऊंचाई से लेकर 500 किमी. की ऊंचाई तक फैला हुआ है. जब 30 मैगाहर्ट्ज से कम आवृत्ति की रेडियो तरंग आयनमंडल से टकराती है, तो यह इसके द्वारा परावर्तित हो जाती है. यह परार्वतन ठीक उसी प्रकार का होता है, जैसे प्रकाश की किरण का दर्पण द्वारा होता है. इस परावर्तित तरंग को पृथ्वी पर रेडियो द्वारा पुनः प्राप्त किया जा सकता है. वास्तविकता तो यह है कि समस्त धरती पर शॉर्ट वेव संचरण केवल आयनमंडल द्वारा संभव है. बिना इसके कोई भी रेडियो तरंग परावर्तित नहीं हो सकती और दूर स्थानों तक रेडियो संदेश भेजना शायद संभव न हो पाता.

आयनमंडल के आविष्कार की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. 12 दिसंबर 1901 को जी. मार्कोनी ने अपने वायरलेस सेट द्वारा यह प्रदर्शित किया कि रेडियो तरंगें अंधमहासागर के दूसरे सिरे तक जा सकती हैं. धरती के गोलाकार होने के कारण रेडियो- तरंगों का इतनी दूरी तक सीधी रेखाओं में जाना तो संभव न था, इसलिए वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ऊपर वायुमंडल में अवश्य हो कोई ऐसी सतह है, जो रेडियो तरंगों के लिए दर्पण का काम करती है और उन्हें परावर्तित कर देती है. सन् 1902 में इंग्लैंड के ओ. हैवीसाइड और अमेरिका के ए. ई. कैनेली के ऐसी सतह के अस्तित्व की पुष्टि की. इसका नाम हैवीसाइड-कैनेली लेयर रखा गया. राडार के आविष्कारक वाटसन वाट ने इस सतह का नाम आयनोस्फीयर यानी आयनमंडल रखा. इसके बाद सन् 1925 में इंग्लैंड के ई. वी. एपलेटन और एम. ए. एफ. बार्नेट ने आयनमंडल के अस्तित्व की प्रयोगात्मक परीक्षणों द्वारा पुष्टि की.

अब प्रश्न उठता है कि आयनमंडल का जन्म कैसे हुआ?

आयनमंडल की उत्पत्ति मूलरूप से सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों और कॉस्मिक किरणों द्वारा ऊपरी वायुमंडल में उपस्थित वायु तथा ओजोन गैस को आयनित करने से हुई है. जब ये किरणें वायु तथा ओजोन गैस के परमाणुओं से टकराती हैं, तो इन्हें आयनित के इलेक्ट्रोन तथा धनात्मक आयन पैदा करती हैं. वायुमंडल का यही आयनित क्षेत्र आयनमंडल कहलाता है. यद्यपि आयनमंडल में उदासीन गैसें, इलेक्ट्रोन तथा धनात्मक आयन होती हैं, लेकिन सारे का सारा आयनमंडल विद्युतीय रूप से उदासीन है. इस अवस्था को हम प्लाज्मा अवस्था कहते हैं.

आयनमंडल की तीन सतहें हैं. इन्हें D, E और F सतह कहते हैं. आमतौर पर धरती से 50 और 90 किमी. के बीच की दूरी वाली सतह को D सतह, 100 से 120 किमी. के बीच की सतह को E सतह तथा 130 से 450 किमी. के बीच की सतह को F सतह कहते हैं. यह लेयर ही समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि उससे ऊपर हजारों किमी. तक फैला हुआ है. F सतह स्वयं भी F और दो सतहों से मिलकर बनी है.

जब कोई रेडियो-संदेश आयनमंडल की विभिन्न परतों से गुजरता है, तो विद्युत चुंबकीय तरंगों के चुंबकीय क्षेत्र के आयनमंडल में उपस्थित इलेक्ट्रोनों से पारस्परिक क्रिया होती है. इस क्रिया के फलस्वरूप रेडियो संदेश धरती की ओर परावर्तित हो जाता है. यही संदेश हमारे रेडियो और ट्रांजिस्टर तक पहुंचते हैं. आयनमंडल किसी निश्चित आवृत्ति तक ही रेडियो तरंगों को परावर्तित कर पाता है. इस निश्चित आवृत्ति से अधिक आवृत्ति की तरंगें आयनमंडल को चीरती हुई आरपार निकल जाती हैं.

वास्तव में आयनमंडल प्रकृति का एक ऐसा वरदान है, जिसके द्वारा आज समस्त वसुधा पर संचरण व्यवस्थाएं सफलतापूर्वक काम कर रही हैं.

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