Sunday, 8 September

आर्यों का मूल निवास स्थान 

आर्यों के भारत आगमन के साथ भारतीय इतिहास में नया मोड़ आया।‌ ऋग्वेद में ‘दक्षिणापथ’ और ‘रेवांतर’ शब्दों का प्रयोग किया गया।इतिहासकार डैवर के मत से आयाँ को नर्मदा और उसके प्रदेश की जानकारी थी।‌ आर्य पंचनद प्रदेश (पंजाब) से अन्य प्रदेश में गए। महर्षि अगस्त (Maharishi Agastya Muni) के नेतृत्व में यादवों का एक कबीला इस क्षेत्र में आकर बस गया। इस तरह इस क्षेत्र का आयीकरण प्रारंभ हुआ।‌

शतपथ ब्राहम्ण के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र यहां आकर बसे। कालांतर में अत्रि, पाराशर, भारद्वाज, भार्गव आदि भी आए। लोकमान्य तिलक तथा स्वामी दयानंद ने भारत को ही आर्यों का मूल निवास स्थान बताया है।‌ पौराणिक गाथाओं के अनुसार कारकोट नागवशी शासक नर्मदा के काटे के शासक थे। मौनेय गंधों से जब उनका संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इक्ष्वाकु नरेश मांधाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों के सहायतार्थ भेजा। उसने गंधर्वो को पराजित किया। नागकुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया गया।‌

पुरुकुत्स ने रेवा का नाम नर्मदा कर दिया।‌ इसी‌ वंश मुचकुंद ने रिक्ष और परिपात्र पर्वत मालाओं के बीच नर्मदा तट पर अपने पूर्वज नरेश माधाता के नाम पर मांधाता नगरी (ओंकारेश्वर – मांधाता) बसाई। यादव वंश के हैहय शासकों के काल में इस क्षेत्र का वैभव काफी निखरा। हैहय राजा माहिष्मति ने नर्मदा किनारे माहिष्मति नगरी बसाई। उन्होंने इक्ष्वाकुओं और नागों को हराया। मध्यप्रदेश के अतिरिक्त उत्तर भारत के कई क्षेत्र उनके अधीन थे।इनके पुत्र भद्रश्रेण्य ने पौरवों को पराजित किया।कार्तवीर्य अर्जुन इस वंश के प्रतापी सम्राट थे।उन्होंने कारकोट वशी नागो, अयोध्या के पौरवराज, त्रिशंकु और लकेश्वर रावण को हराया।कालावर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों की पराजय हुई। इनकी शाखाओं ने तुडीकरे (दमोह), त्रिपुरी, दर्शाण (विदिशा), अनूप (निमाड) अवति आदि जनपदों की स्थापना की।

सातवाहन से रुद्रदमन की राजधानी 

मौर्यों के पतन के बाद शुग मगध के शासन हुए।‌ सम्राट पुष्यमित्र शुग विदिशा में थे।‌ इनके पूर्वजों को अशोक पाटलिपुत्र ले गए थे। उन्होंने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया।‌ अग्निमित्र महाकौशल, मालवा, अनुप (विध्य से लेकर विदर्भ) का राज्यापाल था सातवाहनों ने भी त्रिपुरी, विदिशा, अनूप आदि अपने अधीन किए।‌ गौतमी पुत्र सातकर्णी की मुद्राएं होशंगाबाद, जबलपुर, रायगढ़ आदि में मिली है।सातवाहनों ने ईसा पूर्व की दूसरी सदी से 100 ईसवीं तक शासन किया था।इसी दौरान शकों के हमले होने लगे थे।कुषाणों ने भी कुछ समय तक इस क्षेत्र पर शासन किया।कुषाणकाल की कुछ प्रतिमाए जबलपुर से प्राप्त हुई है।कर्दन वंश उज्जयिनी और छिदवाड़ा में राज्यारूद था।‌ शक क्षत्रप रूद्रदमन प्रथम ने सातवाहनों को हराकर दूसरी शताब्दी में पश्चिमी मध्यप्रदेश जीता।

उत्तरी मध्य भारत में नागवंश की विभिन्न शाखाओं ने कांतिपुर, पद्मावती और विदिशा में अपने राज्य स्थापित किए।  नागवंश नौ शताब्दियों तक विदिशा में शासन करता रहा शकों से संघर्ष हो जाने के बाद वे विध्य प्रदेश चले गए।‌‌ वहां उन्होंने किलकिला राज्य की स्थापना कर नागावध को अपनी राजधानी बनाया।‌ त्रिपुरी और आसपास के क्षेत्रों में बोधों वंश ने अपना राजय स्थापित किया।‌‌ आ‌टविक‌ राजाओं ने बैतूल, व्याघ्रराज ने बस्तर में तथा महेंद्र ने भी बस्तर में अपने राजय स्थापित किए।‌ ये समुद्र गुप्त के समकालीन थे।‌ चौथी शताब्दी में गुप्तों के उत्कर्ष के पूर्व विध्य शक्ति के नेतृत्व में वाकाटकों ने मध्यप्रदेश के कुछ भागों पर शासन किया।‌ राजा प्रवरसेन ने बुदलेखण्ड से लेकर हैदराबाद तक अपना आधिपत्य जमाया।‌ दिवाड़ा, बैतूल बालाघाट आदि में वाकाटकों के कई ताम पत्र मिले हैं।

यह भी पढ़ें: जानिए मध्य प्रदेश के बारे में

मुगलकाल के संघर्ष का साक्षी 

मराठों के उत्कर्ष और ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ मध्यप्रदेश इतिहास का नया युग प्रारंभ हुआ। पेशवा बाजीराव ने उत्तर भारत की विजय योजना का प्रारंभ किया। विध्याप्रदेश में चंपत राय ने औरंगजेब की प्रतिक्रियावादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दियाथा। चंपतराय के पुत्र छत्रसाल ने इसे आगे बढ़ाया। उन्होंने विध्यप्रदेश तथा उत्तरी मध्यभारत के कई क्षेत्र व महाकौशल के सागर आदि जीत लिए थे।मुगल सूबेदार बंगश से टक्कर होने पर उन्होंने पेशवा बाजीराव को सहायतार्थ बुलाया व फिर दोनों ने मिलकर बंगश को पराजित किया।इस युद्ध में बगश को स्त्री का वेष धारण कर भागना पड़ा था।

इसके बाद छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपना तृतीय पुत्र मानकर सागर, दमोह, जबलपुर, धामोनी,शाहगढ़, खिमलासा और गुना, ग्वालियर के क्षेत्र प्रदान किए। पेशवा ने सागर, दमोह में गोविद खेर को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। उसने बालाजी गोविंद का अपना कार्यकारी बनाया।जबलपुर में बीसा जी गोविंद की नियुक्ति की गई। गढ़ा मंडला में गोंड राजा नरहरि शाह का राज्य था।मराठों के साथ संघर्ष में आवा साहब मोरो व बापूजी नारायण नेउसेहराया।कालातर में पेशवा ने रघुजी भोसले को इचर का क्षेत्र दे दिया। भौसले का पास पहले से नागपुर का क्षेत्र था।यह व्यवस्था अधिक समय तक नहीं टिक सकी। वह सारे देश में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे हुए थे। मराठों के आतरिक कलहसे उन्हें हस्तक्षेप का अवसर मिला।

सन 1818 में पेशवा को हराकर उन्होंने जबलपुर – सागर क्षेत्र रघुजी भोसले से छीन लिया।सन 1877 में लाई हेस्टिंग्स ने नागपुर के उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप किया और अप्पा साहब को हराकर नागपुर एवं नर्मदा के उत्तर का साराक्षेत्र मराठों से छीन लिया। उनके द्वारा इसमें निजाम का बरार क्षेत्र भी शामिल किया गया। सहायक संधि के बहाने बरार को वे पहले ही हथिया चुके थे।

इस प्रकार अंग्रेजों ने मध्यप्रात व बरार को मिला-जुला प्रात बनाया।महाराज छत्रसाल की मृत्यु केबाद विध्यप्रदेश, पन्ना, रीवा, बिजावर, जयगढ़, नागौद आदि छोटी – छोटी रियासतों में बंट गया।अंग्रेजों ने उन्होंने कमजोर करने लिए आपस में लड़ाया और संधियां की। अलग-अलग‌ संघियों के माध्यम से इन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में लेलिया गया।सन 1722-23 में पेशवा बाजीराव ने मालवा पर हमला कर लूटा था।

राजा गिरधर नहादुर नागर उस समय मालवा का सूबेदार था। उसने मराठों के आक्रमण का सामना किया जयपुर नरेश सवाई जयसिह मराठों के पक्ष में था।‌ पेशवा के भाई विमनाजी अप्पा ने गिरधर बहादुर और उसके भाई दयाबहादुर के विरुद्ध मालवामें कई अभियान किए।

सारंगपुर के युद्ध में मराठों ने गिरधर बहादुर को हराया।मालवा का क्षेत्र उदासी पवार और मल्हारराव होलकर के बीच बट गया।‌ बुरहानपुर से लेकर ग्वालियर तक का भाग येशवा ने सरदार सिंधिया को प्रदान किया। इसके साथ ही सिधिया ने उज्जैन, मंदसौर तक का क्षेत्र अपने अधीन किया।सन 1737 अंतिम रूप से मालवा मराठों के तीन प्रमुख सरदारों पवार (धार एवं देवास) होल्कर (पश्चिम निमाड़ से रामपुर भानपुरा तक) और सिघिया बुहरानपुर, खडबा, टिमरनी, हरदा, उज्जैन, मंदसौर व ग्वालियर के अधीन हो गया।

मध्यकाल से मुगलों के आक्रमण तक 

सम्राट हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक यानि 590 ईसवी से लेकर 647 ईसवी तक अपने राज्य का विस्तार किया। हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था। इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया।‌ इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया हर्ष के साम्राज्य में आर्थिक प्रगति की गाथा लिखी गई। हर्ष को मृत्यु के बाद सन 648 में मध्यप्रदेश अनेक छोटे – बड़े राज्यों में बंट गया।

मालवा में परमारों ने, विध्य में दिलों ने और महाकौशल में कल्चुरियों की शाखा ने त्रिपुरा में शासन कायम किया। इस वंश के शासकों में कोमल्लदेव, युवराजदेव, कोमल्लदेव द्वितीय और गांगेयदेव ने दक्षिण तक अपनी सीमाएं बढ़ाई।विदिशा कुछ समय तक राष्ट्रकूटों के अधीन रहा। इसके अवशेष ग्वालियर धमनार, ग्यारसपुर आदि में पाए जाते हैं। कुछ काल तक कालयकुब्ज के गुर्जर प्रतिहार वंश के नरेशों और दक्षिण के राष्ट्रकूटों ने भी मालवा के कुछ भागों पर शासन किया।

ग्वालियर और आसपास के क्षेत्र महेंद्रपाल गढ़वाल के अधीन थे। उस समय राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय ने मालवा पर हमला कर अनूप व उज्जयिनी जीता था। दसवीं सदी के लगभग मालवा में परमारों, जो राष्ट्रक्टों की एक शाखा थी, ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया।इस वंश में मुंज एवं भोज ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की। वहीं मुंज ने त्रिपुरा के कल्चुरियों, राजस्थान के चौहानों गुजरात और कर्नाटक के चालुक्यों से संघर्ष किया।

मोहम्मद गौरी ने किया ग्वालियर पर कब्जा 

सन् 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मोहम्मद गौरी ने चौहानों की सत्ता दिल्ली से उखाड़ फेंकी।‌ उसने‌ अपने सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासक बनाया।गौरी और ऐवक ने सन् 1196 में ग्वालियर के नरेश सुलक्षण पाल को हराया। उसने गौरी की प्रभुसता स्वीकार कर ली। सन 1200 में ऐबक ने पुनः ग्वालियर पर हमला किया। परिहारों ने ग्वालियर मुसलमानों को सौंप दिया।‌

यह भी पढ़ें: जानिए राजस्थान के बारे में

इल्तुतमिया ने सन् 1231-32 में ग्वालियर के मंगलदेव को हराकर विदिशा, उज्जैन, कालिंजर, चंदेरी आदि पर भी विजय प्राप्त की। उसने भेलसा और ग्वालियर में मुस्लिम गवर्नर नियुक्त किए।सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा सभी प्रमुख स्थान जीते। एन-उल-मुल्कमुल्तानी को मालवा का सूबेदार बनाया गया। मालवा तुगलकों के भी अधीन रहा। तुगलकों के पतन के बाद मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना दिलावर खां गौरी ने की। मांडू के सुल्तानों में हुशंगशाह प्रसिद्ध हुआ। उसने होशंगाबाद नगर बसाया। मालवा के प्रसिद्ध खिलजी द्वितीय प्रमुख था पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक बड़ा क्षेत्र इनके अधीन रहा।

1479 में स्वतंत्र हुआ ग्वालियर

ग्वालियर सन् 1479 में पुनः स्वतंत्र हो गया। दिल्ली सल्तनत के ये पतन के दिन थे। गढ़ा मंडला में गोंडों ने राज्य की स्थापना की। उन्होंने जबलपुर एवं महाकौशल क्षेत्र अपने अधीन किए। गोंडों की शाखा नै गढ़ कटंगा को अपनी राजधानी बनाई। मुस्लिम इतिहासकारों ने इनके राज्य का नाम गोंडवाना बताया है। जादोराय इस वंश का संस्थापक था। इस वंश का दूसरा राजा संग्रामशाह था। इसके अधीन 52 गढ़ थे। जबलपुर, दमोह, सागर, सिवनी, नरसिंहपुर, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाडा, नागपुर और बिलासपुर आदि क्षेत्र भी इसके अधीन थे।

भोपाल पर भी मराठों की नजर  

हैदराबाद के निजाम ने मराठों को रोकने की योजना बनाई, लेकिन पेशवा बाजीराव ने शीघ्रता की और भोपाल जा पहुंचा तथा सीहोर, होशंगाबाद का क्षेत्र उसने अधीन कर लिया। सन 1737 में भोपाल के युद्ध में उसने निजाम को हराया। युद्ध के उपरांत दोनों की संधि हुई। निजाम ने नर्मदा-चंबल क्षेत्र के बीच के सारे क्षेत्र पर मराठों का आधिपत्य मान लिया। रायसेन में मराठों ने एक मजबूत किले का निर्माण किया। मराठों के प्रभाव के बाद एक अफगान सरदार दोस्त मोहम्मद खां ने भोपाल में स्वतंत्र नवाबी की स्थापना की। बाद में बेगमों का शासन आने पर उन्होंने अग्रेजों से सधि की और भोपाल अंग्रेजो के सरक्षण में चला गया।

अग्रेजों ने मराठों के साथ पहले, दूसरे, तीसरे, और चौथे युद्ध में क्रमश: पेशवा, होल्कर, सिधिया और भोसले को परास्त किया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के काल में मराठा संघ में फूट पड़ी और अंग्रेजों ने उसका लाभ उठाया। अंग्रेजों ने सिंधिया से पूर्वी निमाड और हरदा-टिमरनी छीन लिया और मध्यप्रांत में मिला लिया। अंग्रेजों ने होत्कर को भी सीमित कर दिया और मध्यभारत में छोटे- छोटे राजाओं को जो मराठों के अधीनस्थ सामंत थे. राजा मान लिया। मध्यभारत में सेंट्रल इंडिया एजेंसी स्थापित की गई। मालवा कई रियासतों में बट गया। इन रियासतों पर प्रभावी नियंत्रण हेतु महू, नीमच, आगरा, बैरागढ़ आदि में सैनिक छावनियां स्थापित की।

विद्रोह का प्रतीक बना था रोटी और कमल का फूल

सन 1857 की क्रांति में मध्यप्रदेश का बहुत असर रहा। बुंदेला शासक अंग्रेजों से पहले से ही नाराज थे। इसके फलस्वरूप 1824 में चंद्रपुर (सागर) केजवाहर सिंह बुंदेला, नरहुत के मधुकर शाह, मदनपुर के गोंड मुखिया दिल्ली शाह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी। इस प्रकार सागर, दमोह, नरसिंहपुर से लेकर जबलपुर, मंडला और होशंगाबाद के सारे क्षेत्र में विद्रोह की आग भड़की, लेकिन आपसी सामंजस्य और तालमेल के अभाव में अंग्रेज इन्हें दबाने में सफल हो गए।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन 1857 में मेरठ, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बैरकपुर आदि के विद्रोह की लपटें यहां भी पहुंची। तात्या टोपे और नाना साहेब पेशवा के संदेश वाहक ग्वालियर, इंदौर, महू, नीमच, मंदसौर, जबलपुर, सागर, दमोह, भोपाल, सीहोर और विंध्य के क्षेत्रों में घूम-घूमकर विद्रोह का अलख जगाने में लग गए। उन्होंने स्थानीय राजाओं और नवाबों के साथ-साथ अंग्रेजी छावनियों के हिंदुस्तानी सिपाहियों से संपर्क बनाए। इस कार्य के लिए रोटी और कमल का फूल गांव- गांव में घुमाया जाने लगा।

मुगल शहजादे हुमायूं इन दिनों रतलाम, जावरा, मंदसौर, नीमच क्षेत्रों का दौरा कर रहे थे। इन दौरों के परिणामस्वरूप 3 जून 1857 को नीमच छावनी में विद्रोह भड़क गया और सिपाहियों ने अधिकारियों को मार भगाया। मंदसौर में भी ऐसा ही हुआ। 14 जून को ग्वालियर छावनी के सैनिकों ने भी हथियार उठा लिए। इस तरह शिवपुरी, गुना, और मुरार में भी विद्रोह भड़का। उधर, तात्या टोपे और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर जीता। महाराजा सिंधिया ने भागकर आगरा में अंग्रेजों के यहां शरण ली। 

1 जुलाई 1857 को शादत खां के नेतृत्व में होल्कर नरेश की सेना ने छावनी रेसीडेंसी पर हमला कर दिया। कर्नल ड्यूरेंड, स्टुअर्ट आदि सीहोर की ओर भागे पर वहां भी विद्रोह की आग सुलग चुकी थी। भोपाल की बेगम ने अंग्रेज अधिकारियों को सरंक्षण दिया। अजमेरा के राव बख्तावर सिंह ने भी विद्रोह किया और धार, भोपाल आदि क्षेत्र विद्रोहियों के कब्जे में आ गए। महू की सेना ने भी अंग्रेज अधिकारियों को मार भगाया। मंडलेश्वर, सेंधवा, बड़वानी आदि क्षेत्रों में इस क्रांति का नेतृत्व भीमा नायक कर रहा था। शादत खां, महू, इंदौर के सैनिकों के साथ दिल्ली गया। वहां बादशाह जफर के प्रति मालवा के क्रांतिकारियों ने अपनी वफादारी प्रकट की।

सागर, जबलपुर और शाहगढ़ भी क्रांतिकारियों के केंद्र थे विजय राधोगढ़ के राजा ठाकुर सरजू प्रसाद इन क्रांतिकारियों के अगुआ थे। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट उनका साथ दे रही थी नरसिंहपुर में मेहरबान सिंह ने अंग्रेजों को खदेड़ा। मंडला में रामगढ़ की रानी विद्रोह की अगुआ थी। इस विद्रोह की चपेट में नेमावर, सतवास और होशंगाबाद भी आ गए। रायपुर, सोहागपुर और संबलपुर ने भी क्रांतिकारियों का साथ दिया। मध्यप्रदेश में क्रांतिकारियों में आपसी सहयोग और तालमेल का अभाव था। इसलिए अंग्रेज इन्हें एक-एक कर कुचलने में कामयाब हुए। सर हयूरोज ने ग्वालियर जीत लिया। महू, इंदौर, मंदसौर, नीमच के विद्रोह को कर्नल ड्यूरेण्ड, स्टुअर्ट और हेमिल्टन ने दबा दिया।

राजा भोज ने भोजपुर में स्थापित किया मध्यभारत का सोमनाथ

भोजपुर शिव मंदिर
भोजपुर शिव मंदिर

भोज ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की नीति को जारी रखा। उसने कल्याणी के चालुक्यों सफलता की।‌ त्रिपुरा के कल्चुरि नरेश गांगेयदेव को भी परास्त किया।‍‍ लाट, कोंकण, कनौज आदि स्थान के शासकों से उसने युद्ध किया।‌ चितौड़,‌ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भेलसा और भोपाल से गोदावरी तक का क्षेत्र उसकी सीमा में था। भोज ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी।‍‍ उन्होंने भोपाल के निकट भोजसागर एवं भोजपुर नगर की स्थापना की तथा वहां विशाल शिव मंदिर बनवाया, जिसे मध्यभारत का सोमनाथ कहा गया है।‍ हर्ष की मृत्यु के बाद विंध्य प्रदेश में चंदलों ने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।इस वंश के प्रसिद्ध शासकों में रोहित, हर्ष, यशोवर्धन और धंग है।‌ धंग ने महमूद गजनवी के आक्रमण के विरुद्ध अफगानिस्तान के शाही नरेश जयपाल को सैनिक सहायता दी थी।

चंदेलों ने कान्यकुब्ज, अंग, कांची एवं कल्युरियों से संघर्ष किया। इस वंश का अंतिम नरेश परमादिदेव था।‌ यह पृथ्वीराज चौहान का समकालीन था। फरिश्ता के अनुसार सन् 1202 में कालिंजर पर हमला कर ऐबक ने उसे जीता था।‌ चंदेल राजाओं ने खजुराहो में विश्व प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण कराया।

यह भी पढ़ें: इतिहास को खुद में समेटे हुए मध्य प्रदेश के 17 किले

बुंदेलखंड का प्रमुख आस्था का केंद्र है स्थल, रमणीय है स्थान

शिवजी का पहला घर कैलाश पर्वत पर माना जाता है। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उनका दूसरा घर भी है, जो मध्यप्रदेश के सतपुड़ा के जंगलों में घिरे पचमढ़ी की वादियों में स्थित जिला मुख्यालय के बिजावर के निकट जटाशंकर धाम है। इसे शिवजी का दूसरा घर भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक भस्मासुर से बचने के लिए शिवजी ने पहले इटारसी के पास स्थित तिलक सिंदूर में शरण ली थी। उसके बाद जटाशंकर में‌ छुपे थे।

जटाशंकर धाम को भी शिवजी का दूसरा घर माना जाता है। जटाशंकर धाम में बरसों से रह रही सिंधुबाई कहती हैं कि वे शिवजी की भक्त हैं। कई सालों पहले वह चली आई थीं। दिन रात जंगल में रहना और भक्ति करना ही सिंधुबाई का काम है। सिंधुबाई कहती है कि पौराणिक कथाओं में भी इसका उल्लेख मिलता है कि जब भस्मासुर शिवजी के पीछे पड़ गए थे उस समय शिवजी भागकर यहीं छुपे थे। पहाड़ों और चट्टानों के बीच बरगद के पेड़ों की झूलती शाखाएं देखकर लगता है कि शिवजी ने अपनी विशालकाय जटाएं फैला रखी हैं। इन्हीं कारणों से इस स्थान का नाम जटाशंकर पड़ा।

शिवरात्रि पर लगता है भक्तों का मेला

भगवान शिव भस्मासुर से बचने के लिए जिन कंदराओं और खोहों में छुपे थे वह सभी स्थान पचमढ़ी में ही हैं। वैसे तो पूरे सालभर यहां लोगों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन श्रावण में और शिवरात्रि के दौरान सैंकड़ों भक्त यहां पूजा करने के लिए आते हैं। श्रावण में यहां मेला जैसा नजारा रहता है। यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

Share.
Exit mobile version