हम सभी ने नेपोलियन बोनापार्ट (Napoleon Bonaparte) का नाम सुना है. इतिहास में कुछ ही लोग इतने शक्तिशाली और प्रभावशाली हुए हैं, जितना कि नेपोलियन था. वह एक ऐसा उदार तानाशाह था. जिसने अपनी शक्ति को लोगों के हित के लिए ही प्रयोग किया, केवल अपने स्वार्थों के लिए नहीं.
नेपोलियन बोनापार्ट का जन्म कोर्सिका टापू के अजासिओ (Ajaccio) नामक स्थान पर 15 अगस्त सन् 1769 में हुआ था. जब वह छोटा ही था, तभी अपनी तुलना वह इतिहास के महान वीरों से किया करता था. नेपोलियन की शिक्षा फ्रांस में हुई. 16 साल की उम्र में ही उसने पेरिस की मिलिटरी एकेडेमी की परीक्षा पास की और वह सन् 1785 में सेना में अफसर बन गया.
जब वह केवल 24 वर्ष का था तब उसने फ्रांस को क्रांति में युद्ध किया और सन् 1793 में वह ब्रिगेडियर जनरल के पद पर पहुंच गया.
सन् 1795 में क्रांति के भय से आंतरिक सेना का कमांड उसको दे दिया गया. इसके बाद उसने कई युद्धों में फ्रांस की सेना का नेतृत्व किया. सन् 1798-99 में मिस्र और सीरिया की उसकी यात्राएं असफल गई और उसे ब्रिटेन से हार माननी पड़ी, लेकिन उसने उत्साह न छोड़ा और फ्रांस वापस आ गया. सन् 1799 में शासन के विरुद्ध विद्रोह के कारण वह उच्चतम पद पर पहुंच गया और वह सैनिक तानाशाह बन गया.
सन् 1800 के आरंभ में उसने सरकार के कार्यों और शिक्षा के क्षेत्र में अनेक सुधार किए. उसके शासन काल में विश्वविद्यालयों का विकास हुआ और उद्योगों में बहुत अधिक उन्नति हुई: 1800 में उसने आस्ट्रिया को हरा दिया. 1803 में उसने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और सन् 1804 में उसने स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया.
उसकी सबसे महान विजय ऑस्टरलित्ज की विजय थी, जो उसने आस्ट्रिया और रूस की सम्मिलित सेनाओं के विरुद्ध 1805 में हासिल की थी. इसके बाद से स्पेन में छोटी-मोटी हारों को छोड़कर 1812 तक वह सभी सैनिक अभियानों में सफल रहा. 1812 में रूस से उसकी भयानक हार हुई. यह हार उसके जीवन पर असामान्य आघात थी. सन् 1812 में जब उसने रूस पर हमला किया तो उसके पास छः लाख सिपाही थे. हालांकि उसने मास्को तक कब्जा कर लिया था, लेकिन रूस के लंबे बर्फीले जाड़ों के कारण सिपाहियों को राशन, पानी तथा दूसरी आवश्यक वस्तुएं ठीक प्रकार नहीं पहुंच सकीं जिससे उसे पीछे हटना पड़ा. उसकी सेना के केवल एक लाख सिपाही ही घर वापस लौट पाए.
इसके बाद वह कई बार पराजित हुआ. हारकर उसे गद्दी छोड़नी पड़ी. उसे दंडस्वरूप देशनिकाला मिला और वह एलबा (Elba) नाम के टापू पर भेज दिया गया. पर कुछ दिन बाद ही वह एलबा से भाग निकला और लौटकर फ्रांस आ गया. उसने फिर से सेना इकट्ठी की और दोबारा सत्ता प्राप्त कर ली. इस सत्ता की अवधि को ‘हन्ड्रेड डेज’ के नाम से पुकारा जाता है. 15 जुलाई सन् 1815 में फिर उसे ब्रिटेन के कमांडर ड्यूक ऑफ
वेलिंगटन से वाटरलू नामक स्थान पर हार माननी पड़ी. इस हार से नेपोलियन ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. उसे दंडित किया गया और दक्षिणी अंधमहासागर के सेंट हैलेना नामक टापू पर भेज दिया गया.
उसने अपने जीवन के अंतिम छः वर्ष इसी टापू पर बिताए, इस टापू पर वहां के गवर्नर हडसन लोवे से उसके अक्सर झगड़े होते रहते थे. नेपोलियन वहां से भागने की कोशिश करता रहता था, लेकिन उसके इरादे हडसन लोवे ने कभी भी पूरे न होने दिए जीवन भर उसने सफलता की आशा नहीं छोड़ो. इसी दौरान उसने अपने जीवन के अनुभवों के विषय में बहुत कुछ लिखा.
मई सन् 1821 को इस बहादुर सैनिक का देहांत हो गया. ऐसा भी कहा जाता है कि उसे जहर देकर मारा गया था. लेकिन आधुनिक इतिहासकारों और डॉक्टरों का मत है कि ऐसा नहीं हुआ. इन लोगों का मत है कि उसे पेट का कैंसर था.
नेपोलियन एक महान सैनिक ही नहीं एक चतुर कूटनीतिज्ञ भी था. एक ओर तो उसने फ्रांस को महानता और शक्ति दी तो दूसरी ओर उसके कारण लाखों लोगों को अनेक कष्ट भी झेलने पड़े.