Sunday, 8 September

जिन ध्वनियों को हम रोज सुनते हैं, वे सभी स्टीरिओफोनिक (Stereophonic) होती हैं. हमारे दो कान हैं और दोनों कानों में आने वाली ध्वनियों में थोड़ा-सा अंतर होता है. उनके पहुंचने का समय तथा तीव्रता में कुछ अंतर अवश्य होता है. प्रत्येक कान में ध्वनि के पहुंचने के समय तथा उनकी तीव्रता का अंतर हमारा मस्तिष्क पता कर लेता है.

हमारा मस्तिष्क एक सेकेंड के एक हजारवें भाग का अंतर पता लगा सकता है. अब यदि किसी के सामने दो माइक्रोफोन रख दिए जाएं, तो इन तक आने वाली ध्वनियों की तीव्रता और पहुंचने के समय में कुछ न कुछ अंतर अवश्य होगा. जब इन दोनों ध्वनियों को लाउडस्पीकर द्वारा पुनः ध्वनि में बदला जाता है, तो सुनने वाले का मस्तिष्क ध्वनि-स्रोत की स्थिति तथा ध्वनि की तीव्रता के अंतर का पता लगा सकता है. मस्तिष्क द्वारा इस प्रकार की स्थानीय ध्वनियों में अंतर स्थापित करने को ‘फैंटम इमेज’ कहा जाता है.

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जानिए स्टीरिओफोनिक ध्वनि क्या है? 2

श्रोता द्वारा ध्वनि-स्रोत की स्थिति का बोध हो जाना ही स्टीरिओफोनिक ध्वनि कहलाती है. वास्तव में स्टीरिओफोनिक ध्वनि सुनने में बिल्कुल वास्तविक जैसी लगती है. इसमें ध्वनि की दिशा तथा तीव्रता के अंतर का दोनों कानों द्वारा पता लगा लिया जाता है. इस प्रकार हम दोनों कानों द्वारा ध्वनि-स्रोत की स्थिति तथा उसके कोणीय प्रसार का पता लगा लेते हैं. स्टीरिओफोनिक ध्वनि हमारे कानों को ऐसी लगती है जैसे कोई कार्यक्रम हमारे सामने ही चल रहा हो.

स्टीरिओफोनिक ध्वनि को रिकार्ड करने तथा पुनः पैदा करने के लिए कम से कम दो माइक्रोफोन और दो लाउडस्पीकरों की आवश्यकता होती है. रिकार्डिंग के लिए दो अलग माइक्रोफोन तथा रिप्रोडक्शन के लिए भी अलग लाउडस्पीकरों को आवश्यकता होती है.

स्टीरिओ रिकार्डिंग के समय प्रयोग में आने वाले दो माइक्रोफोन इस्तेमाल होते हैं, जिनमें एक बायीं ओर से तथा दूसरा दायों ओर से ध्वनि प्राप्त करता है. इन दोनों से प्राप्त संदेशों को अलग-अलग आरेखित किया जाता है. स्टीरिओ रिप्रोडक्शन में ये दोनों आरेख दो लाउडस्पीकरों द्वारा अलग-अलग आवाज पैदा करते हैं.

स्टीरिओफोनिक ध्वनि की रिकार्डिंग के लिए तीन तरीके प्रयोग में लाए जाते हैं. एक तरीके में दोनों माइक्रोफोन एक दूसरे के काफी पास-पास रखे जाते हैं. दूसरे तरीके में माइक्रोफोनों के बीच में कई फुट का फासला रखा जाता है, तथा तरीके में बहुत से माइक्रोफोन प्रयोग में लाए जाते हैं, जिनमें से प्रत्येक माइक्रोफोन प्रत्येक वाद्य यंत्र के पास होता है. इन माइक्रोफोनों के विद्युत-संदेश टेपों पर अंकित किए जाते हैं. रिप्रोडक्शन के लिए लाउडस्पीकरों की भी वही व्यवस्था होती है, जो रिकार्डिंग के लिए माइक्रोफोनों को होती है.

स्टोरिओफोनिक ध्वनियों के कानों पर होने वाले प्रभाव का प्रदर्शन सन् 1933 में ही किया जा चुका था. सन् 1950 तक दो आरेख वाली स्टीरिओफोनिक टेप काफी लोकप्रिय हो गई थी. सन् 1958 तक एक यूव और दो चैनल वाली स्टीरिओ डिस्क भी प्रसिद्धि पा चुकी थी. सन् 1970 तक क्वाड्रोफोनिक सिस्टम ध्वनि पद्धति) विकसित हुआ और अपनी लोकप्रियता प्राप्त करने लगा. ऊपर के चित्रों में मोनो, स्टॉरिओ, मैट्रिक्स क्वाड्रोफोनी तथा डिस्क्रीट क्वाड्रोफोनी दिखाई गई है. ये चित्र रिकार्डिंग और रिप्रोडक्शन प्रदर्शित करते हैं.

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