Thursday, 19 September

शरीर की बीमारी के कीटाणुओं (बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ) के खिलाफ लड़ने और बीमारी के बाद ठीक होने की प्राकृतिक क्षमता को इम्यूनिटी (immunity) या रोधक्षमता कहते हैं. जिस व्यक्ति में किसी बीमारी के प्रति यह रोधक्षमता होती है, उसे वह बीमारी नहीं लगती, जबकि दूसरों को यह बीमारी लग सकती है.

माइक्रोब (Microbe) और पैरासाइट (Parasite) आदमियों में कई बीमारियां फैलाते हैं. बीमारी फैलाने वाले कीटाणु एक प्रकार का जीव-विष शरीर में छोड़ते हैं, जो बहुत जहरीला होता है. सामान्य तौर पर माइक्रोबों से बचने की शरीर में प्राकृतिक शक्ति होती है. पहले तो खेल ही इन्हें अंदर घुसने नहीं देती. दूसरे श्वेत रक्त-कण इन माइक्रोबों को मार देते हैं. पर यदि इनकी संख्या श्वेत रक्तकणों से अधिक हो जाती है, तो ये कण इन माइक्रोबों से शरीर की सुरक्षा नहीं कर पाते.

बहुत से व्यक्तियों में रोधक्षमता प्रणालियां बहुत पुष्ट होती हैं. मनुष्य के रक्त में कुछ एंटीबॉडीज (Antibodies) होती हैं, जो रोग के कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं. एक प्रकार की एंटीबॉडी (Antibody) एक ही प्रकार के रोग के जीवाणु से लड़ सकती है. हर एंटीबॉडी में अलग-अलग गुण होते हैं. कुछ एंटीबॉडीज माइक्रोब द्वारा छोड़े गए विष के प्रभाव को समाप्त कर देते हैं. इनमें से कुछ माइक्रोबों को एक जगह इक‌ट्ठा कर देते हैं, जिससे श्वेत रक्तकण उन पर आसानी से हमला कर सकते हैं. कुछ और एंटीबॉडीज बैक्टीरिया को गला कर मार देते हैं.

कभी-कभी रक्त-प्लाज्मा में कुछ मात्रा में एंटीबॉडीज को स्थायी तौर पर छोड़ दिया जाता है, इससे शरीर का भविष्य में होने वाले हमलों से बचाव होता है. इन लोगों को इन बीमारियों के विरुद्ध रोधक्षम्य लोग कहा जाता है. अतः शरीर के बीमारियों से बचने के प्रतिरोध को रोधक्षमता (Immunity) कहते हैं.

रोधक्षमता दो प्रकार की होती है- विशेष और सामान्य. विशेष रोधक्षमता को अर्जित रोधक्षमता भी कहते हैं. अर्जित रोधक्षमता किसी रोग के हमले के बाद एकदम स्वतंत्र रूप से सक्रिय होती है. सामान्य बाद एकदम स्वतंत्र रूप से सक्रिय होती बीमारिया रक्षा करती है. यह या तो माइक्रोबों को मारती है या उनकी वृद्धि को रोकती है.

कुछ लोगों में बचपन से ही कुछ बीमारियों के प्रति रोधक्षमता होती है. ऐसा माना जाता है कि इनमें पैदायशी या प्राकृतिक रोधक्षमता है. इस तरह के लोग हैजे (Cholera) वगैरह की महामारियों में भी हैजे के शिकार नहीं होते.

एक बार जो बीमारी आदमी को हो जाती है, ज्यादातर जीवनभर दोबारा नहीं होती. मिसाल के तौर पर यदि किसी आदमी को चेचक या खसरा एक बार निकल आए तो फिर जीवनभर नहीं होता. ऐसी स्थिति में शरीर काफी मात्रा में एंटीबॉडीज बना लेता है, जो भविष्य में शरीर की बीमारी से रक्षा करते हैं. इसे अर्जित रोधक्षमता कहते हैं.

कोई भी व्यक्ति एंटीजेन के इलाज से अपने अंदर रोधक्षमता बढ़ा सकता है. इस तरह बढ़ाई गई रोधक्षमता को कृत्रिम रोधक्षमता कहते हैं. हम सभी जानते हैं कि चेचक (chicken pox) इत्यादि की महामारी के समय लोगों को टीके लगाए जाते हैं, इनसे व्यक्ति में कृत्रिम अवरोध-शक्ति पैदा हो जाती है. इस टीके का आविष्कार एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) ने किया था. इसको बछड़े या घोड़े के खून में चेचक का वायरस पहुंचा कर तैयार किया जाता है. बछड़े या घोड़े के खून में जाकर यह वायरस कमजोर पड़ जाता है. यह कमजोर वायरस टीके के रूप में इक‌ट्ठा कर लिया जाता है और मानव शरीर में पहुंचा दिया जाता है. क्योंकि यह वायरस कमजोर होता है, इसलिए उस व्यक्ति पर इसका हमला भी कमजोर ही होता है. पर इसकी शरीर में उपस्थिति एंटीबॉडीज बनाती है, जो चेचक के विरुद्ध कई वर्षों के लिए रोधक्षमता का काम करती हैं. कमजोर किए गए माइक्रोब को शरीर में पहुंचा कर पैदा की गई रोधक्षमता को सक्रिय रोधक्षमता कहते हैं.

रोधक्षमता निष्क्रिय (Passive) भी हो सकती है. इसमें शरीर में एंटीबॉडीज सीधे ही पहुंचाए जाते हैं. घोड़े के शरीर में बीमारी के माइक्रोब पहुंचाए जाते हैं. घोड़े के रक्त में एंटीबॉडीज बनते हैं. एंटीबॉडीज वाले घोड़े का सीरम (Serum) उस के शरीर से लिया जाता है और मनुष्य के शरीर में पहुंचा दिया जाता है. मानव-शरीर बीमारी के विरुद्ध इन एंटीबॉडीज का प्रयोग करता है.

इसी को निष्क्रिय (Passive) रोधक्षमता कहते हैं. निष्क्रिय रोधक्षमता इंजेक्शन देने के फौरन बाद शरीर में पैदा हो जाती है, पर यह अधिक समय तक प्रभावशाली नहीं रहती है.

अब ऐसे टीके बन गए हैं, जो काली खांसी, डिप्थीरिया, मीजल्स, टिटेनस, टाइफाइड, पोलियो और टी.बी. इत्यादि बीमारियों के विरुद्ध रोधक्षमता पैदा करते हैं.

भारत में मुंबई का हाफ्कोन इंस्टीट्यूट और पूना का वायरस इंस्टीट्यूट अनेक प्रकार के टीके तैयार करते हैं.

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