Sunday, 8 September

प्रोजेक्टर (projector) एक ऐसा प्रकाशिक यंत्र है, जो पर्दे पर सिनेमा फिल्म या स्लाइडों के आकार में बढ़े हुए चित्र प्रदर्शित करता है. इस यंत्र को प्रोजेक्शन लैंटर्न भी कहते हैं.

प्रोजेक्टर पर्दे पर बड़े चित्र कैसे बनाता है?

एक साधारण प्रोजेक्टर के निम्नलिखित हिस्से होते हैं: (1) एक प्रकाश स्रोत, (ii) एक अवतल परावर्तक, जो प्रकाश को केंद्रित करता है, (iii) एक कंडेंसर लेंस, तथा (iv) एक प्रोजेक्टर लेंस. किसी स्लाइड के छोटे प्रतिबिंब को आवर्धित करने के लिए (आकार में बढ़ाने के लिए) एक प्रकाश-स्रोत की आवश्यकता होती है. अधिकतर प्रोजेक्टरों में 1000 वाट का टंगस्टन फिलामेंट का बल्ब होता है. इस बल्ब के पीछे एक अवतल दर्पण लगा होता है, जो प्रकाश को स्लाइड की ओर परावर्तित करता है. यहां परावर्तित प्रकाश कंडेंसर लेंस पर पड़ता है. कंडेंसर लेंस में दो समोत्तल लेंस होते हैं. वे इस प्रकार रखे जाते हैं कि उनके उभरे सिरे एक ओर हों. कंडेंसर लेंस प्रकाश को स्लाइड की ओर केंद्रित कर देता है. इस प्रकाश से स्लाइड पर बना प्रतिबिंब चमक उठता है. बिना कंडेंसर लेंस के स्लाइड पर बहुत कम प्रकाश पड़ेगा. प्रकाश की किरणें उल्टी रखी स्लाइड पर बने प्रतिबिंब से पार निकलकर प्रोजेक्शन लेंस पर पड़ती हैं. यह लेंस पर्दे पर बड़ा प्रतिबिब बना देता है. इस प्रकार स्लाइड या फिल्म पर बना छोटा-सा प्रतिबिब बड़ा दिखाई देने लगता है. प्रोजेक्शन पर्दा सफेद कैनवस का बना होता है. यह प्रोजेक्टर से काफी दूरी पर रखा जाता है.

कुछ स्लाइड प्रोजेक्टरों में एक बार में 100 से अधिक स्लाइडें लगाई जा सकती हैं. एक बटन को दबाने से ही पहली स्लाइड की जगह दूसरी स्लाइड आ जाती है. स्लाइड प्रोजेक्टरों का प्रयोग अध्यापक लोग करते हैं, ताकि वे अपने विषय संबंधी चित्र श्रोताओं को दिखाकर भाषण को अधिक स्पष्ट रूप से समझा सकें, इनका उपयोग विज्ञापन कंपनियों, प्रचारकों, उपदेशकों, आदि द्वारा भी अपने विषयों को भली प्रकार समझाने के लिए किया जाता है.

सिनेमा में एक मोटर लगी होती है, जिससे सिनेमा की रील अपने आप आगे चलती जाती है. इन प्रोजेक्टरों में एक सेकेंड में 32 चित्र दिखाए जाते हैं. हमारी आंख में किसी दृश्य का प्रभाव 1/16 सेकेंड तक रहता है. अतः एक सेकेंड में दिखने वाले 32 चित्र हमारी आंखों को ऐसे दिखते हैं, जैसे कोई घटना सतत रूप से घटित हो रही है. जब फिल्म चल रही होती है तो एक घूमते हुए शटर की पत्ती लैंप और फिल्म के बीच से गुजरती रहती है जिससे देखने वालों को यह पता नहीं चल पाता कि स्थिर चित्र एक के बाद एक आ रहे हैं. इससे हमें फिल्म के पात्रों और वस्तुओं में होने वाली गतियां स्वाभाविक रूप से होती हुई दिखाई देती है.

बोलती हुई फिल्मों में लैंप का प्रकाश फिल्म में पड़ी आवाज की धारियों (Sound Tracks) में से गुजरता है और प्रकाश संवेदनशील सेल (Light Sensitive Cell) से टकराता है जो एक विद्युतीय संकेत पैदा करता है. यह एंपलीफायर और लाउडस्पीकर में आवाज पैदा करता है. कुछ फिल्मों में चीहियो फिल्मों की तरह आवाज एक मेगनेटिक स्ट्रिप पर रिकार्ड होती है. यह चुंबकीय पट्टी फिल्म के अंदर ही होती है.

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